Sai Chalisa
Sai Chalisa is a devotional song based on Sai Baba. Sai Chalisa is a popular prayer composed of 102 verses.
श्री साईं चालीसा
॥चौपाई॥
पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।
कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥
कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना।
कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना॥
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।
कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई।
कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई॥
शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते॥
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान॥
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥
कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर।
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥
जैसे-जैसे अमर उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान ॥10॥
दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥
कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।
एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान॥
स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।
अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल॥
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥
लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे।
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे॥
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥
दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने , दिया भक्त को यह आशीश ॥20॥
‘अल्ला भला करेगा तेरा’ पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥
अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥
मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥
मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।
तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥
ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥
पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति ॥30॥
जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से॥
बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥
साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥
‘काशीराम’ बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।
मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था॥
सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में॥
स्तब्ध निशा थी, थे सोय, रजनी आंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।
विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥
घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई॥
लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो।
आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ॥40॥
बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥
अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई।
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई॥
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥
उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥
समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में।
क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में॥
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।
उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है॥
इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई॥
शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल ॥50॥
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी॥
जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में॥
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी॥
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥
सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥
ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ॥60॥
साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥
तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा॥
तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥
जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया॥
गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े।
साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥
इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान।
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥
एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ॥70॥
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति॥
अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥
लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी॥
जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥
औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥
दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥
हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥
मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ॥80॥
पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥
तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को॥
पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर॥
सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥
वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल॥
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है॥
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के॥
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में।
गले परस्पर मिलने लगते, हैं जन-जन आपस में॥
ऐसे अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥90॥
नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने।
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने॥
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई।
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई॥
सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान॥
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥
ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥
सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥
जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए ॥100॥
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता।
वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥
गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर॥
Shree Sai chalisa english
Pehle Sai ke charan main, apna sheesh namaaun main,
Kaise Shirdi Sai aaye, saara haal sunaun main.
Kaun hai mata, pita kaun hai, yeh na kisi ne bhi jaana,
Kaha janam Sai ne dhara, prashan paheli raha bana.
Koyee kahe Ayodhya ke, yeh Ramchandra bhagvan hain,
Koyee kehta SaiBaba, pavan putra Hanuman hain.
Koyee kehta mangal murti, Shri Gajanan hain Sai,
Koyee kehta Gokul-Mohan Devki Nandan hain Sai.
Shanker samaj bhakta kayee to, Baba ko bhajhte rahte,
Koyee kahe avatar datta ka, pooja Sai ki karte.
Kuchha bhi maano unko tum, pur Sai hain sachche bhagvan,
Bade dayalu deen-bandhu, kitno ko diya jivan-daan.
Kayee baras pehle ki ghatna, tumhe sunaunga main baat,
Kisee bhagyashaali ki , Shirdi main aayee thi baraat.
Aaya saath usi ke tha, baalak aik bahut sunder,
Aaya aaker vahin bus gaya, paavan Shirdi kiya nagar.
Kayee dino tak raha bhatakta, bhiksha maangi usne dar dar,
Aur dikhaee aisee leela, jag main jo ho gayee amar.
Jaise-jaise umar badi, badti hee vaisy, gaee shaan,
Ghar ghar hone laga nagar main, Sai Baba kaa gungaan.
Dig digant main laga goonjane, phir to Saiji ka naam,
Deen-dhukhi ki raksha karna, yahi raha Baba ka kaam.
Baba ke charno main ja kar, jo kehta main hoo nirdhan,
Daya usee par hoti unkee, khul jaate dhukh ke bandhan.
Kabhi kisee ne maangi bhiksha, do Baba mujhko suntaan,
Avum astoo tava kaihkar Sai dete the usko vardaan.
Swayam dhukhi Baba ho jaate, deen-dukhijan ka lakh haal,
Anteh: karan shree Sai ka, sagar jaisa raha vishal.
Bhakta ek madrasi aaya, ghar ka bahut bada dhanvaan,
Maal khajana behadh uskaa, keval nahi rahi suntaan.
Laga manane Sainath ko, Baba mujh per daya karo,
Junjha se junkrit naiya ko, tum hee mairee par karo.
Kuldeepak ke bina andhera, chchaya hua ghar mein mere,
Isee liye aaya hoon Baba, hokar sharnagat tere.
Kuldeepak ke re abhav main, vyartha hai daulat ki maya,
Aaj bhikhari ban kar Baba, sharan tumhari main aaya,
De do mujhko putra-daan, main runi rahoonga jivan bhar,
Aur kisi ki aas na mujko, siraf bharosa hai tum par.
Anunaye-vinaye bahut ki usne, charano main dhar ke sheesh,
Tub prasana hokar Baba ne, diya bhakta ko yeh aashish.
‘Allah bhala karega tera,’ putra janam ho tere ghar,
Kripa rahegi tum per uski, aur tere uss balak per.
Ab tak nahi kisi ne payaa, Sai ki kripa ka paar,
Putra ratna de madrasi ko, dhanya kiya uska sansaar.
Tan-man se jo bhaje usi ka jug main hota hai uddhar,
Sanch ko aanch nahi haiy Koyee, sada jooth ki hoti haar.
Main hoon sada sahare uske, sada rahoonga uska daas,
Sai jaisa prabhu mila hai, itni ki kum haiy kya aash.
Mera bhi din tha ek aisa, miltee nahi mujhe thi roti,
Tan par kapda duur raha tha, sheish rahi nanhi si langoti,
Sarita sammukh hone par bhi main pyasa ka pyasa tha,
Durdin mera mere ooper, davagani barsata tha.
Dharti ke atirikt jagat main, mera kuch avalumbh na tha,
Bana bhikhari main duniya main, dar dar thokar khata tha.
Aise main ik mitra mila jo, param bhakt Sai ka tha,
Janjalon se mukta, magar iss, jagti main veh bhi mujh sa tha.
Baba ke darshan ke khatir, mil dono ne kiya vichaar,
Sai jaise daya murti ke darshan ko ho gaiye taiyar.
Paavan Shirdi nagari main ja kar, dhekhi matvaali murti,
Dhanya janam ho gaya ki humne jab dhekhi Sai ki surti.
Jabse kiye hai darshan humne, dukh sara kaphur ho gaya,
Sankat saare mite aur vipdaon ka ant ho gaya.
Maan aur sammaan mila, bhiksha main humko Baba se,
Prati bambit ho uthe jagat main, hum Sai ki abha se.
Baba ne sammaan diya haiy, maan diya is jivan main,
Iska hee sambal le main, hasta jaunga jivan main.
Sai ki leela ka mere, man par aisa assar huaa,
Lagta, jagti ke kan-kan main, jaise ho veh bhara huaa.
‘Kashiram’ Baba ka bhakt, iss Shirdi main rehta tha,
Maiy Sai ka Sai mera, veh duniya se kehta tha.
Seekar svayam vastra bechta, gram nagar bazaro main,
Jhankrit uski hridh-tantri thi, Sai ki jhankaron se.
Stabdh nisha thi, thay soye, rajni aanchal me chand sitare,
Nahi soojhta raha hath ka, hath timiri ke maare.
Vastra bech kar lote raha tha, hai! Haath se ‘kaashi’,
Vichitra bada sanyoga ki uss din aata tha veh akaki.
Gher raah main khade ho gaye, usse kutil, anyaayi,
Maaro kaato looto iski, hee dhvani pari sunayee.
Loot peet kar usse vahan se, kutil gaye champat ho,
Aaghaton se marmahat ho, usne di thi sangya kho.
Bahut der tak pada raha vaha, vahin usi halat main,
Jaane kab kuch hosh ho utha, usko kisi palak main.
Anjane hee uske muh se, nikal para tha Sai,
Jiski prati dhvani Shirdi main, Baba ko padi sunai.
Shubdh utha ho manas unka, Baba gaye vikal ho,
Lagta jaise ghatna sari, ghati unhi ke sanmukh ho.
Unmadi se idhar udhar tab, Baba lage bhatakne,
Sanmukh chizein jo bhi aiee, unkoo lage patkne.
Aur dhadhakte angaro main, Baba ne kar dala,
Huye sashankit sabhi vahan, lakh tandav nritya nirala.
Samajh gaye sab log ki koi, bhakt para sankat ain,
Shubit khade thai sabhi vahan par, pade huae vismaiye main.
Usse bachane ke hi khatir, Baba aaj vikal hai,
Uski hi piraa se pirit, unka ant sthal hai.
Itne me hi vidhi ne apni, vichitrata dhikhlayi,
Lakh kar jisko janta ki, shradha sarita lehrayee.
Lekar sanghya heen bhakt ko, gaadi ek vahan aayee,
Sanmukh apne dekh bhakt ko, Sai ki aankhe bhar aayee.
Shant, dheer, gambhir sindhu sa, Baba ka anthsthal,
Aaj na jane kyon reh-rehkar, ho jaata tha chanchal.
Aaj daya ki murti svayum tha bana hua upchaari,
Aur bhakt ke liye aaj tha, dev bana prati haari.
Aaj bhakti ki visham pariksha main, safal hua tha Kaashi,
Uske hee darshan ki khatir, thai umre nagar-nivasi.
Jab bhi aur jahan bhi koyee, bhakta pade sankat main,
Uski raksha karne Baba jate hai palbhar main.
Yuga yuga ka hai satya yeh, nahi koi nayee kahani,
Aapat grasta bhakt jab hota, jate khudh antar yami.
Bhedh bhaav se pare pujari manavta ke the Sai,
Jitne pyare Hindu-Muslim uutne hi Sikh isai.
Bhed bhaav mandir masjid ka tod phod Baba ne dala,
Ram rahim sabhi unke the, Krishan Karim Allah Tala.
Ghante ki pratidhvani se gunja, masjid ka kona kona,
Mile paraspar Hindu Muslim, pyar bada din din doona.
Chamatkar tha kitna sundar, parichaye iss kaya ne dee,
Aur neem karvahat main bhi mithaas Baba ne bhar dee.
Sabko sneha diya Sai ne, sabko suntul pyar kiya,
Jo kuch jisne bhi chaha, Baba ne usko vahi diya.
Aise sneha sheel bhajan ka, naam sada jo japa kare,
Parvat jaisa dhukh na kyoon ho, palbhar main veh door tare.
Sai jaisa daata humne, aare nahi dekha koi,
Jiske keval darshan se hee, saari vipda door gayee.
Tan main Sai, man main Sai, Sai Sai bhajha karo,
Apne tan ki sudh budh khokur, sudh uski tum kiya karo.
Jab tu apni sudh tajkur, Baba ki sudh kiya karega,
Aur raat din Baba, Baba, hi tu rata karega.
To Baba ko aare! vivash ho, sudhi teri leni hee hogi,
Teri har icha Baba ko, puree hee karni hogi.
Jungal jungal bhatak na pagal, aur dhundne Baba ko,
Ek jagah keval Shirdi main, tu paiga Baba ko.
Dhanya jagat main prani hai veh, jisne Baba ko paya,
Dukh main sukh main prahar aath ho, Sai ka hee gune gaya.
Giren sankat ke parvat, chahe bijli hi toot pare,
Sai ka le naam sada tum, sanmukh sub ke raho ade.
Iss budhe ki sunn karamat, tum ho javo ge hairaan,
Dung raha sunkar jisko, jane kitne chatur sujaan.
Ek baar Shirdi main sadhu dhongi tha koi aaya,
Bholi bhali nagar nivasi janta ko tha bharmaya.
Jari, butiyan unhe dhikha kar, karne laga vaha bhashan,
Kehne laga sunno shrotagan, ghar mera hai vrindavan.
Aushadhi mere paas ek hai, aur ajab iss main shakti,
Iske sevan karne se hi, ho jaati dukh se mukti.
Aggar mukta hona chaho tum, sankat se bimari se,
To hai mera numra nivedan, har nar se har nari se.
Lo kharid tum isko, sevan vidhiyan hai nyari,
Yadyapi tuch vastu hai yeh, gun uske hai atisheh bhari.
Jo hai suntaan heen yahen yadi, meri aushdhi ko khayen,
Putra ratan ho parapat, aare aur veh mooh manga phal paye.
Aushadh meri jo na kharide, jeevan bhar pachtayega,
Mujh jaisa prani shayad hi, aare yaha aa payega.
Duniya do din ka mela hai, mauj shaunk tum bhi kar lo,
Gar is se milta hai, sub kuch, tum bhi isko le lo.
Hairani badti janta ki, lakh iski kaarastaani,
Pramudit veh bhi man hi man tha, lakh logo ki nadani.
Khabar suna ne Baba ko yeh, gaya daud kar sevak ek,
Sun kar bhukuti tani aur, vismaran ho gaya sabhi vivek.
Hukum diya sevak ko, satvar pakad dusht ko lavo,
Ya Shirdi ki seema se, kapti ko duur bhagavo.
Mere rehte bholi bhali, Shirdi ki janta ko,
Kaun neech aisa jo, sahas karta hai chalne ko.
Palbhar mai hi aise dhongi, kapti neech lootere ko,
Maha naash ke maha gart main, phahuncha doon jivan bhar ko.
Tanik mila aabhaas madari, krur kutil anyayi ko,
Kaal nachta hai ab sir par, gussa aaya Sai ko.
Pal bhar main sab khel bandh kar, bhaga sir par rakh kar pairr,
Socha tha man hi man, bhagvan nahi hai ab khair.
Such hai Sai jaisa daani, mil na sakega jag main,
Ansh iish ka Sai Baba, unhe na kuch bhi mushkil jag main.
Sneh, sheel, sojanya, aadi ka abhushan dharan kar,
Badta iss duniya main jo bhi, manav sevaye path par.
Vahi jeet leta hai jagti, ke jan jan ka anthsthal,
Uski ek udasi hi jag, jana ko kar deti hai vivhal.
Jab jab jag main bhar paap ka bar bar ho jaata hai,
Usse mita ne ke hi khatir, avtari ho aata hai.
Paap aur anyaya sabhi kuch, iss jagti ka har ke,
Duur bhaga deta duniya ke danav ko shan bhar main.
Sneh sudha ki dhar barasne, lagti hai duniya main,
Gale paraspar milne lagte, jan jan hai aapas main.
Aisse hee avtari Sai, mrityulok main aakar,
Samta ka yeh paath padhaya, sabko apna aap mitakar.
Naam dwarka masjid ka , rakha Shirdi main Sai ne,
Daap taap, suntaap mitaya, jo kuch aaya Sai ne.
Sada yaad main mast ram ki, baithe rehte the Sai,
Peher aath hee raam naam ka, bhaite rehte the Sai.
Sookhee rookhee tazi baasi, chahe ya hovai pakvaan,
Sada pyar ke bhooke Sai ke, khatir the sabhi samaan.
Sneh aur shradha se apni, jan jo kuch de jaate the,
Bade chaav se uss bhojan ko, Baba paavan karte the.
Kabhi kabhi man behlane ko, Baba baag main jate the,
Pramudit man main nirukh prakrati, chatta ko veh hote the.
Rang-birange pushpa baag ke mand mand hil dul karke,
Bihau birane mana main bhi sneh salil bhar jate the.
Aise su-madhur bela main bhi, dukh aafat vipada kai maare,
Apne man ki vyatha sunane, jan rehte Baba ko ghere.
Sunkar jinki karun katha ko, nayan kamal bhar aate the,
De vibhuti har vyatha, shanti, unke uur main bhar dete the.
Jaane kya adhbut, shakti, uss vibhuti main hoti thi,
Jo dharan karke mastak par, dukh saara har leti thi.
Dhanya manuja veh sakshaat darshan, jo Baba Sai ke paye,
Dhanya kamal kar unke jinse, charan kamal veh parSai.
Kaash nirbhaiy tumko bhi, saakshat Sai mil jaata,
Barshon se ujra chaman apna, phir se aaj khil-jata.
Gar pakar main charan shri ke, nahi chorta umar bhar,
Mana leta main jaroor unko gar rooth te Sai mujh par!!
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