“Krishna” A Divine Meaning
श्रीकृष्ण संसार में अवतीर्ण होकर धर्म का परिपालन के साथ सरल और सहज जीवन बिताने का मार्ग दिखाते हैं। उनके नाम-स्मरण से ही मोक्ष सुनिश्चित है। कृष्ण शब्द की व्युत्पत्ति ब्रह्मवैवर्तपुराण में कई प्रकार से दर्शाई गई है। कृष्ण शब्द में तीन अक्षर विद्यमान हैं। जैसे कृष+ण्+अ। इनमें कृष् का अर्थ है उत्कृष्ट, ण् का अर्थ है, उत्तम भक्ति और अ का अर्थ है देने वाला। अर्थात् उत्कृष्ट भक्ति को जो देता है अर्थात् जगाता है वही कृष्ण है। कृष्ण शब्द में ही दो अक्षर कृष्+ण मानकर पुराणों में जो अर्थ बताया गया है उसके अनुसार कृष् का अर्थ है परम आनन्द और ण का अर्थ है दास्य कर्म अर्थात् सेवा। कृष्ण शब्द का अर्थ होगा परम आनन्द और सेवा का अवसर, इन दोनों को देने वाला ही कृष्ण है।
कृष्ण शब्द की तीसरी व्युत्पत्ति बताते हैं कि कृष् का अर्थ है कोटि जन्म से अर्जित पापों का क्लेश और ण का अर्थ है उन सब पापों को दूर करने वाला। कोटि जन्मों से किए हुए पापों को दूर करने वाला ही कृष्ण है। शास्त्रों में कृष्ण नाम के उच्चारण का फल भगवान् विष्णु के हजार नामों को तीन बार दोहराने के बराबर मिलता है। वैदिक विद्वान् कहते हैं कि सभी नामों से कृष्ण का नाम बड़ा है। जिसके मुख से कृष्ण नाम का उच्चारण किया जाता है उस के सारे पाप स्वत: ही भस्मसात् हो जाते हैं।
सर्वलोकहितकारी कृष्ण ने जन्म के समय पिता वसुदेव को अपना वास्तविक रूप दिखाकर मोहित किया।
तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङख्गदार्युदायुधम्। श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम्।।
कृष्ण के गुणों का जो वर्णन किया गया है, उससे पता चलता है आदर्श उत्तम पुरूष के लक्षण। यहां पर महर्षि वेदव्यास 64 गुणों का वर्णन करते हैं, जो संख्या भी आठ से आठ का गुणनफल ही है। श्रीकृष्ण के सखाओं की संख्या देखेंगें तो भी आश्चर्य होगा कि वह भी आठ ही है। उज्वलनीलमणि नामक ग्रन्थ में इनकी प्रियाओं में भी राधा, चन्द्रावली आदि आठ सखियां ही मुख्य रूप से दर्शायी गई हैं। श्रीकृष्ण की पत्नियों की संख्या तो असंख्य हैं तथापि उन में से भी रूक्मिणी, जाम्बवती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, नाग्नजिती, भद्रा और लक्ष्मणा नाम की आठ पत्नियां ही प्रमुख हैं।
भागवत का उद्देश्य है कि श्रीकृष्ण तत्व को दर्शाना। श्रीकृष्ण परब्रह्म भगवान् विष्णु के अवतार माने जाते हैं। इस अवतार के लिए योग्य तिथि का चयन भगवान कृष्ण ने अष्टमी के रूप में किया। रोहिणी नक्षत्र से युक्त अष्टमी के दिन श्रीकृष्ण धरती पर अवतीर्ण हुए। कृष्ण जन्म और उससे जुड़ी हुई संख्या आठ का महत्व स्फुरित होगा। कृष्ण के अवतार से पहले मत्स्य और कूर्म आदि सात अवतार भगवान् विष्णु के माने जाते हैं। यह कृष्णावतार विष्णु के दस अवतारों में से आठवां है। इतना ही नहीं, देवकी और वसुदेव की आठवीं संतान के रूप में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
कृष्ण को परतत्व समझकर उनसे प्रेम करने वाली राधा का भी जन्म भाद्रपद शुक्ल अष्टमी तिथि को ही हुआ। क्या चमत्कार है यह आठ की संख्या जो कि अचेतन है, फिर भी कृष्णानुग्रह से मुख्यत्व प्राप्तकर धन्य हो गई। कृष्ण का संकल्प है कि वे साधुजनों की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए तथा धर्म के प्रतिष्ठापन के लिए हर युग में जन्म लेते हैं। इस संकल्प को वेदव्यास ने भी भागवत में आठवें श्लोक के रूप में दर्शाकर इस संख्या के महत्व को और बढ़ाया।
आमतौर पर सात समुद्र, सात वर्ण, सात लोक, सात पर्वत तथा संगीत शास्त्र में सप्तस्वर आदि ही प्रसिद्ध हैं। जब कोई भी पदार्थ सात तक पहुंचता है तो उसे उस पदार्थ की चरम सीमा मानी जाती है। ऎसी दशा में जब आठवां कोई होगा तो वह परब्रह्म ही माना जाता है। यही कारण है कि श्रीकृष्ण ने अपने जन्मतिथि के रूप में अष्टमी को ही चुना। इसीलिए अपने गुरूजनों से उपदेश पाकर लोग भी अष्टांग् योग और अष्टांग् नमस्कार आदि को अपनाते हैं।
कृष्ण भक्ति और शरणागति से प्राप्त होते हैं। सामान्य जन भी उन्हें अपनी आंतरिक पुकार से प्राप्त कर सकता है। श्रीकृष्ण ने संसार को भक्ति और मैत्री के महत्व को अपने आचरण से सिखाया है, जिसका अनुपालन हमें करना है। हमें परबह्म श्रीकृष्ण से “न वै प्रार्थ्यं राज्यं न च कनकमाणिक्य- विभवम्” जैसे भौतिक पदार्थो को त्यागकर सदा “हर त्वं संसारं हर त्वं पापानि” इत्यादि प्रार्थना करनी चाहिए। वेदांतदेशिक प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि “नाथायैव नम:पदं भवतु न:” अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के लिए हमारे पास समर्पित करने के लिए मात्र प्रणाम है।
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